Monday 11 April 2011

नारी को धरती न कहते....


नारी को धरती न कहते
न देते पुरुष को गगन का उदाह्र्ण
अगर मिल जाते वो-यूँ ही
तो बदल जाते जीवन के हर रंग.....

होली के रंगों में रंगती,
अपनी चुनरी को वो पगली दुल्हन
साफा इन्द्रधनुषी बांधता,
प्रिया से मिलने को उल्लसित मन

द्वार पर रसीली रंगोली सजाती,
करती अपना जीवन-धन अर्पण
रखता उसके मान को भी वो,
अपने से ऊपर-वो पगला मन

सूर्य की रश्मियाँ अठखेलियाँ करतीं,
हर दिन-हर पल उनके आंगन
नित रास रचाते यमुना तट पर,
वो बंसी की धुन पर होके मगन

नारी को धरती न कहते
न देते पुरुष को गगन का उदाह्र्ण
अगर मिल जाते वो-यूँ ही
तो बदल जाते जीवन के हर रंग.....

गुंजन
२९/३/११

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