Monday 8 August 2011

अब फिर कैसी शिकायत......



हाँ उस coffee shop से चली आई थी मैं
तुम्हें अकेला छोड़ कर
ज़ज्ब करके अपने को अपने-आप में

लेकिन तुम्हें आज भी सिर्फ
तुम दिखे .......मैं नहीं
इस बरसती भीगी शाम में क्या
उस दिन भी नहीं ......
जब तुम्हारा हाथ उस गली के मोड़ पर छोड़ा था मैंने
________

तुम्हें अगर मैं कभी दिखी होती
तो आज बात कुछ और होती
हाँ फूलों से झड़ता पानी उन कपों में आज भी गिरता
पर तब हम-तुम
यूँ अपनी शाम को ज़ाया न कर रहे होते
समेट रहे होते
इक-दूसरे को.....
इक-दूसरे में.......
कहीं ना जाने देने के लिए

तब क्यूँ नहीं समझे थे तुम.....मुझे ?
तब क्यूँ नहीं रोका था तुमने.....मुझे ?

अब फिर कैसी शिकायत......

गुंजन
५/८/११

4 comments:

  1. वाह...बेहद खूबसूरत रचना...

    नीरज

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  2. कई बार आपकी पोस्ट लाजवाब कर देती है.........हैट्स ऑफ इसके लिए|

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